चार प्रकार के हविद्र्रव्य
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने यजुर्वेद भाष्य तथा स्वरचित अन्य ग्रन्थों में यज्ञसामग्री के चार भेदों का उल्लेख किया है-
अग्निहोत्रमारभ्याश्वमेधपर्यन्तेषु यज्ञेषु सुगन्धिमिष्टपुष्ट-रोगनाशकगुणैर्युक्तस्य सम्यक् संस्कारेण शोधितस्य द्रव्यस्य वायुवृष्टिजलशुद्धिकरणार्थमग्नौ होमो क्रियते, स तद्धारा सर्वजगत् सुखकार्येव भवति।
अग्निहोत्र से लेकर अश्वमेध पर्यन्त जो कर्मकाण्ड है, उसमें चार प्रकार के द्रव्यों का होम करना होता है, वे हैं-
सुगन्धित- कस्तूरी, केसर, अगर, तगर, श्वेतचन्दन, इलायची, जायफल, जावित्री आदि। (नागरमोथा, बालछड़, खस, लौंग, तुमुल, तेजपात, तालीसपत्र, गुगल, सुगन्धबाला, सुगन्धकोकिला, कुलंजन, मुलहठी, हाउबेर आदि भी सुगंधित द्रव्य हैं)।
मिष्टगुणयुक्त- शक्कर, शहर, छुहारा, किशमिश, मुनक्का आदि एवं मोहनभोग, मीठाभात, लड्डू, आदि।
पुष्टिकारक- घृत, दूध, फल, कन्द, अन्न, बादाम, काजू, पिश्ता आदि।
रोगनाशक- सोमलता (गिलोय), ब्राह्मी, चिरायता, हरड़, कपूरकचरी, शतावर, अडूसा, इंद्रायण की जड़, देवदारू, पुनर्नवा, क्षीरकाकोली, शालपर्णी, मकोय, आंवला, खूबकला, गोखरू, रास्ना, गुलाबफूल, जीवन्ती, पाण्डरी, वायविडंग आदि।
इन चारों का परस्पर शोधन, संस्कार और यथायोग्य मिलाकर अग्नि में युक्तिपूर्वक जो होम किया जाता है, वह वायु एवं वृष्टिजल की शुद्धि करने वाला होता है। इससे सब जगत्् को सुख होता है।
अनेक वैज्ञानिकों व विद्वानों द्वारा यज्ञ पर शोध
- जलती हुई खांड (शक्कर) के धुंए में वायु शुद्ध करने की बड़ी शक्ति है। इससे हैजा, तपेदिक, चेचक इत्यादि का विष शीघ्र नष्ट हो जाता है। -(फ्रांस के विज्ञानवेत्ता प्रो. टिलवर्ट)
- मैंने मुनक्का, किशमिश इत्यादि सूखे फलों को जला कर देखा है और मालूम किया है कि इनके धुएं से टाइफाइड ज्वर के कीटाणु केवल आधा घंटे में और दूसरे रोगों के कीटाणु घंटे दो घंटे में समाप्त हो जाते हैं। -(डाॅ. टाटलिट)
- घी जलाने से कृमि रोग का नाश हो जाता है। -(फ्रांस के हेफकिन जी, चेचक के टीके आविष्कारक)
- मैंने कई वर्ष की चिकित्सा के अनुभव से निश्चय किया है, कि जो महारोग औषध भक्षण करने से दूर नहीं होते, वे वेदोक्त यज्ञों द्वारा (अर्थात् यज्ञ चिकित्सा से) दूर हो जाते हैं। -(कविराज पंडित सीताराम शास्त्री)
- मैं प्रथम 25 वर्ष तक खोज और परीक्षण के पश्चात् अब 26 वर्ष से क्षय रोग की यज्ञ द्वारा चिकित्सा सैकड़ों रोगियों की कर चुका हूं। उनमें ऐसे भी रोगी थे, जिनके क्षत (कैविटी) कई कई इंच लंबे थे और जिनको वर्षों सैनिटोरियम और पहाड़ पर रहने पर भी अंत में डाॅक्टरों ने असाध्य बता दिया, पर वे यज्ञ चिकित्सा से पूर्ण निरोग होकर अब अपना कारोबार कर रहे हैं। -(बरेली निवासी डाॅ कुंदनलाल अग्निहोत्री की पुस्तक से)
- जब यज्ञ किया जाता है तो वातावरण में प्राण ऊर्जा के स्तर में वृद्धि होती है जो कि प्रयोगों में यज्ञ से पहले और बाद में मानव हाथों की किर्लियन तस्वीरों की मदद से भी दर्ज किया गया था। -(जर्मनी के डाॅ. माथियास फरिंजर)
- कार्डिएक प्लेक्सस (अनाहत चक्र) पर अग्निहोत्र (यज्ञ) के प्रभावों का अध्ययन किया है। यज्ञ के बाद की स्थिति वैसी ही पाई जाती है जैसी कि मानसिक या आध्यात्मिक उपचार के बाद होती है। -(डाॅ. हिरोशी मोटोयामा)
- सुगंध चिकित्सा द्वारा बुढ़ापा रोका जा सकता है। -(श्रीमती मार्ग्रेट मोरी ने ‘द सीक्रेट आॅफ लाइफ एंड यूथ’ नामक पुस्तक में)
अग्निहोत्र महिमा
एतेषु यश्चरते भ्राजमानेषु यथाकालं चाहुतयो ह्याददायन्।
तन्नयन्त्येताः सूर्यस्य रश्मयो यत्र देवाना पतिरेकोऽधिवासः।। -मुण्डक उपनिषद् 1,2,5
सात लपटों वाली अग्नि की शिखाओं में जो यजमान, ठीक समय पर आहुतियां देता हुआ कर्म को पूरा करता है उसको ये आहुतियां, सूर्य किरणों में पहुंच कर संचित कर्मरूप होकर वहां पहुंचा देती है जहां जगत् के आधार परमात्मा को साक्षात् जाना जाता है।
यथेह क्षुधिता बाला मातरं पर्युपासते।
एवं सर्वाणि भूतान्यग्निहोत्रमुपासता।। -छान्दोग्य उपनिषद् 5,24,5
इस लोक में जैसे भूखे बच्चे, माता से सुखादि की याचना करते है। ऐसे ही सारे प्राणी, अग्निहोत्र (यज्ञ) की उपासना करते हैं। यज्ञों में अग्निहोत्र महत्वपूर्ण माना गया है इसलिए उसका विशद वर्णन मिलता है। यथा-
अग्नये चेव सायं, प्रजापतये चेत्यब्रवीत्।
सूर्याय च प्रातः प्रजापतये चेति।।
अग्निहोत्र में सायंकाल, अग्नये एवं प्रजापतये तथा प्रातः काल, सूर्याय और प्रजापतये बोलते हुए आहुति दी जाती है। अग्निहोत्रे स्वाहाकारः – अग्निहोत्र में स्वाहा बोलना चाहिये।
एतद्वै जरामर्य सत्रं यदग्निहोत्रम्।
जरया ह वा मुच्यते मृत्युना वा।।
यह अग्निहोत्र, जरामर्य सत्र है क्योंकि यह अत्यधिक अशक्ता अथवा मृत्यु के बाद ही छोड़ा जा सकता है।
अग्निहोत्रेऽश्वमेधस्याप्तिः – अग्निहोत्र करने पर अश्वमेध का फल मिलता है।
मुखं वा एतद्यज्ञानां यदग्निहोत्रम्। – यह अग्निहोत्र, यज्ञों का मुख है।
सर्वस्मात्पाप्मनो निर्मुच्यते स य एवं विद्वानग्निहोत्रं जुहोति।
जो विद्वान्, अग्निहोत्र करता है वह सब पापों (दोषों या प्रदूषणों) से छूट जाता है। सात हविर्यागों में अग्निहोत्र का द्वितीय स्थान है।